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स॒हस्र॑शृङ्गो वृष॒भो यः स॑मु॒द्रादु॒दाच॑रत्। तेना॑ सह॒स्ये॑ना व॒यं नि जना॑न्त्स्वापयामसि ॥७॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sahasraśṛṅgo vṛṣabho yaḥ samudrād udācarat | tenā sahasyenā vayaṁ ni janān svāpayāmasi ||

पद पाठ

स॒हस्र॑ऽशृङ्गः। वृ॒ष॒भः। यः। स॒मु॒द्रात्। उ॒त्ऽआच॑रत्। तेन॑। स॒ह॒स्ये॑न। व॒यम्। नि। जना॑न्। स्वा॒प॒या॒म॒सि॒ ॥७॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:55» मन्त्र:7 | अष्टक:5» अध्याय:4» वर्ग:22» मन्त्र:7 | मण्डल:7» अनुवाक:3» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर कैसे घर में सोना आदि करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (यः) जो (सहस्रशृङ्गः) हजारों किरणवाला (वृषभः) वृष्टि कारण सूर्य (समुद्रात्) अन्तरिक्ष से जैसे (उदाचरत्) ऊपर जाता है, वैसे (तेन) उस के साथ (सहस्येन) बल में उत्तम घर से (वयम्) हम लोग (जनान्) मनुष्यों को (नि, स्वापयामसि) निरन्तर सुलावें ॥७॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जहाँ सूर्य की किरणों का स्पर्श सब ओर से हो और जो बल का अधिक बढ़ानेवाला घर हो, उसके शुद्ध होने में सब को सुलावें और हम लोग भी सोवें ॥७॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः कीदृशे गृहे गृहस्थैः शयनादिव्यवहाराः कर्तव्य इत्याह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यस्सहस्रशृङ्गो वृषभः सूर्यः समुद्राद्यथोदाचरत् तथा तेन सहस्येन गृहेण सह वयं जनान् तत्र नि स्वापयामसि ॥७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सहस्रशृङ्गः) सहस्राणि शृङ्गाणि तेजांसि किरणा यस्य सूर्यस्य सः (वृषभः) वृष्टिकरः (यः) (समुद्रात्) अन्तरिक्षात्। समुद्र इत्यन्तरिक्षनाम। (निघं०१.३)। (उदाचरत्) ऊर्ध्वं गच्छति (तेना) अत्र संहितायामिति दीर्घः। (सहस्येना) सहसि बले साधुना। अत्रापि संहितायामिति दीर्घः। (वयम्) (नि) नित्यम् (जनान्) (स्वापयामसि) ॥७॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्याः ! यत्र सूर्यस्य किरणानां स्पर्शस्सर्वतः स्यात् यच्च बलाधिवर्धकं गृहं भवेत् तत्र शुद्धे सर्वान् स्वापयेम वयं च शयीमहि ॥७॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो ! जेथे सूर्यकिरणांचा सगळीकडून स्पर्श होईल व बल अधिक वाढेल अशा घराला शुद्ध करून त्यात सर्वांना शयन करवावे व स्वतः ही शयन करावे. ॥ ७ ॥